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देहरादून।

 इस धरती पर जो भी मनुष्य जन्म लेता है उसे तीन प्रकार के ऋण चुकाने होते हैं, जो देव ऋण, ऋषि ऋण एवं पितृ ऋण होते हैं।

प्रत्येक वर्ष आने वाले पितृ पक्ष के पवित्र 16 दिनों में हम श्राद्ध कर्म में शामिल होकर ऐसे तीनों ऋणों से मुक्त हो सकते हैं। इस दौरान सच्चे मन से किए संकल्प की पूर्ति होने पर पितृों को आत्म शांति मिलती है और वे हम पर आशीर्वाद की वर्षा करते हैं।

6 सितम्बर को पूर्णिमा के दिन से पितृ आगमन कर चुके हैं तथा 20 सितम्बर को अमावस्या वाले दिन श्राद्ध समाप्त हो जाएंगे और पितृ अपने लोक को प्रस्थान कर जाएंगे। जीवात्मा जब इस स्थूल देह से पृथक होती है उसी स्थिति को मृत्यु कहते हैं। मृत्यु को प्राप्त हो जाने पर भी पांच तत्वों से बना हुआ सूक्ष्म शरीर विद्यमान रहता है।
हिंदू मान्यताओं के अनुसार, एक वर्ष तक प्राय: सूक्ष्म जीव को नया शरीर नहीं मिलता। मोहवश वह सूक्ष्म जीव स्वजनों व घर के आस-पास घूमता रहता है। श्राद्ध कार्य के अनुष्ठान से सूक्ष्म जीव को तृप्ति मिलती है इसीलिए हिंदू धर्म में श्राद्ध कर्म किया जाता है।


पितृ अप्रत्यक्ष रूप में छत्रछाया बन कर हमारी रक्षा करते हैं। महालय काल यानी पितृ पक्ष पितृ दोष निवारण का सर्वोत्तम अवसर है। जन्मकुंडली में पितृ दोष होने पर किसी पवित्र तीर्थ में अपने पूर्वजों का पिंडदान व श्राद्ध करने से पितृ तृप्त हो पीड़ा शांत करते हैं तथा पुत्र-पौत्रादि से सम्पन्न होने का आशीर्वाद देते हैं। जो व्यक्ति जानबूझ कर श्राद्ध कर्म नहीं करता वह शापग्रस्त होकर अनेक कष्टों एवं दुखों से पीड़ित रहता है।
श्राद्ध सदैव दोपहर के समय ही करें। प्रात:काल एवं सायंकाल के समय श्राद्ध करना निषेध कहा गया है।


धर्म ग्रंथों में पितृों को देवताओं के समान ही संज्ञा दी गई है और पितृों को श्रद्धासुमन अर्पित करने का पर्व श्राद्ध कहलाता है। श्राद्ध कर्म में नाम गौत्र और मंत्र ही दान दिए अन्न को लेकर पितरों के पास पहुंचते हैं। हमारा श्राद्ध कर्म कहता है कि श्राद्ध में जो अन्न पृथ्वी पर बिखर जाता है उससे पिशाच योनि तृप्त होती है। पृथ्वी पर जल डालने से वृक्ष योनि को प्राप्त हुए पितृों की तृप्ति होती है। दीपक एवं गंध से देवत्व योनि को प्राप्त पितृों की तृप्ति होती है। हमारे अन्न, जल, तिल एवं वस्त्र के दान करने से मनुष्य योनि को प्राप्त पितर संतृप्त होते हैं। स्वर्णदान, रजत दान से अन्न दान श्रेष्ठ कहा गया है। 
पितरों को श्रद्धापूर्वक पितृ पक्ष के दौरान पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराने वालों को इस जीवन में ही सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। मृत्यु के उपरांत भी श्राद्ध कर्म करने वाले गृहस्थ को स्वर्ग लोक, विष्णु लोक और ब्रह्म लोक की प्राप्ति होती है।


गरुड़ पुराण में कहा गया है कि अमावस्या के दिन पितृगण वायु रूप में घर के दरवाजे पर दस्तक देते हैं। वे अपने परिजनों से श्राद्ध की इच्छा रखते हैं। सूर्यास्त के बाद वे निराश होकर लौट जाते हैं। वे इतने दयालु हैं कि आपके पास श्राद्ध कर्म करने के लिए कुछ भी न हो तो दक्षिण दिशा की तरफ मुंह करके आंसू बहा देने से ही तृप्त हो जाते हैं। श्राद्ध में शुभ कर्म, नया कारोबार, मुंडन संस्कार, नव गृहप्रवेश, नई गाड़ी, सोना-चांदी, फैक्टरी हेतु नई मशीनरी खरीदना, घरेलू प्लाट की नींव रखना निषेध है। 


महाभारत में लिखा है कि पिहोवा (कुरुक्षेत्र) की आठ कोस भूमि पर बैठ कर ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की थी। गंगापुत्र भीष्म पितामह की सद्गति भी पृथुदक में हुई थी। पिहोवा में प्रेत पीड़ा शांत होती है। अकाल मृत्यु होने पर दोष निवारण के लिए पिहोवा में कर्मकांड करवाने की परम्परा है। ऐसा करने से मृतक प्राणी अपगति से सद्गति को प्राप्त हो जाता है। धर्म शास्त्रों में लिखा है कि पिंड रूप में कौओं को भी भोजन कराना चाहिए। ब्रह्मा जी ने सत्व, रज, तमोगुण के मिश्रण के साथ सृष्टि का निर्माण किया। पक्षियों में कौआ तमोगुण से युक्त है। पुराणों में कौओं को यम का पक्षी माना गया है। इसकी स्वाभाविक मृत्यु नहीं होती अर्थात यह पक्षी दीर्घ जीवी है। कौआ मनुष्य के दादा से पड़पोता तक की चार आयु को जी लेता है। हम समृद्ध तब होते हैं, जब पितृ प्रसन्न होते हैं।