हमारा संविधान लचीला भी और कठोर भी
भारत का संविधान जितना लंबा और विस्तृत है उतना ही लचीला भी है। संविधान निर्माताओं ने भारत की भौगोलिक, सास्कृतिक एवं धार्मिक विधिताओं को ध्यान में रखने के साथ ही भविष्य की बदलती परिस्थितियों को भी ध्यान में रख कर इसका निर्माण किया था।
लिहाजा इसे एक ‘जीवित दस्तावेज’ कहा जा सकता है, जिसने न केवल भारतीय समाज के विकास को आकार दिया है, बल्कि इसमें 70 साल बाद भी बदलती परिस्थितियों में भी स्वयं को प्रासंगिक बनाए रखने की अदृभुत क्षमता बनाए रखी।
वास्तव में हमारा संविधान जितना कठोर है उतना ही लचीला भी है। 1951 से लेकर मार्च 2019 तक हमारे संविधान में 104 संशोधन हो चुके हैं। पहला संशोधन तो संविधान लागू होने के 15 माह बाद ही करना पड़ा था जिसे संसद में तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू द्वारा 10 मई 1951 को पेश किया था और 18 जून 1951 को लागू हो गया था।
संविधान के इस प्रथम संशोधन के तहत संविधान के अनुच्छेद 15, 19, 31 एवं 31 बी में संशोधन कर मौलिक अधिकारों को तर्क संगत करने के साथ ही भाषण तथा अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार आम आदमी को दिया गया। उसी संशोधन के तहत अनुच्छेद 87, 174, 342 एवं 376 में संशोधन कर अनुसूचित जातियों और जनजातियों को मिलने वाले संवैधानिक संरक्षण को पुष्ट करने के साथ ही संविधान में 9वीं अनुसूची जोड़ कर विभिन्न राज्यों के भूमि सुधार एवं जमींदारी उन्मूलन कानूनों का रास्ता प्रशस्त किया गया।
प्रस्तावना में ही संविधान की आत्मा के दर्शन
भारतीय संविधान की दृढ़ता के साथ ही लचीलेपन और दूरदृष्टि का एक और प्रमाण इसकी प्रस्तावना है जिसे संविधान का सार या आत्मा भी कहा जाता है। लिहाजा कहा जाता है कि विधायिका संविधान के प्रावधानों को तो बदल सकती है मगर उसकी भावना को नहीं बदल सकती। इसमें बुनियादी आदर्श, उद्देश्य और दार्शनिक भारत के संविधान की अवधारणा शामिल है।
इस प्रस्तावना में कहा गया है कि, ‘‘हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढाने के लिए दृढ संकल्प होकर इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।’’
1976 में 42वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा इसमें संशोधन किया गया था जिसमें तीन नए शब्द समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता को जोड़ा गया था। यह भारत के सभी नागरिकों के लिए न्याय, स्वतंत्रता, समानता को सुरक्षित करती है और लोगों के बीच भाई चारे को बढावा देती है।
लेकिन हम भारत के लोग कहां ?
दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र का शासन विधान संचालित करने वाले दुनिया के सबसे बड़े लिखित संविधान को इसके अंगीकरण के 70 साल पूरे हो रहे हैं, मगर कई मामलों में अब भी दुनिया में बेमिसाल होने के बावजूद ‘‘हम भारत के लोग’’ की भावना से प्रेरित ‘हम भारत के लोगों’ द्वारा ‘हम भारत के लोगों’ के लिए यह जो बेमिसाल दस्तावेज तैयार किया गया था उसमें बहुत ही गहराई तक स्थापित ‘‘हम भारत के लोग’’ की मूल भावना लुप्त होती जा रही है, जो कि हमारे राष्ट्र की एकता और अखण्डता के लिए हानिकारक है।
हम की श्रेणी में धर्म, जाति, वर्ग, समुदाय, भाषा भाषी और क्षेत्रवासी आ गए हैं। कुछ लोग भारत पर अपना पट्टा या एकाधिकार मान बैठे हैं। समाज की एकता खण्डित होने से समाज के असली मुद्दे गौण होते जा रहे हैं और भावनात्मक मुद्दे जिनका गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी एवं महंगाई जैसे ज्वलंत मुद्दों से कोई वास्ता नहीं है। इसीलिए अयोग्य लोग भी शासन में पहुंच रहे हैं।
संप्रभुता, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, गणराज्य, न्याय, स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे शब्दों में ही संविधान की मूल भावना समाहित है लेकिन इन शब्दों की मनमानी व्याख्या होने लगी है। अदालतों में 3 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं जिसका मतलब है कि लोगों को समय से न्याय नहीं मिल रहा है। न्याय भी साधन सम्पन्न लोगों के लिए जितना सुलभ है आम आदमी के लिए उतना ही दुर्लभ हो गया है।
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