Mumbai सपनो का शहर माना जाता है ..वह सपने जो जागती आँखों से देखे जाते हैं ..और बंद पलकों में भी अपनी कशिश जारी रखते हैं ..पर सपना ही तो है जो टूट जाता है …यही लगा मुझे मुंबई शहर दो बार में देख कर ……..
..हम्म शायद मुंबई वाले मुझसे इस कथन पर नाराज हो जाएँ ..हम जिस शहर में रहते हैं वही उसकी आदत हो जाती है .दूसरा शहर तभी आकर्षित करता है जब वह अपनी उसकी सपने की जगमग लिए हो | हर शहर को पहचान वहां के लोग और वहां बनी ख़ास चीजे देती हैं | और मुख्य रूप से सब उनके बारे में जानते भी हैं ..जैसे मुंबई के बारे में बात हो तो वहां का गेट वे ऑफ इंडिया और समुंदर नज़रों के सामने घूम जायेंगे | उनके बारे में बहुत से लोग लिखते हैं और वह सब अपनी ही नजर से देखते भी हैं …और वही नजर आपकी यात्रा को ख़ास बना देती है | किसी भी शहर को जानना एक रोचक अनुभव होता है ..ठीक एक उस किताब सा जो हर मोड़ पर एक रोमांच बनाए रखती है और मुंबई के समुन्दर में तो हर लहर में यह बात लागू होती है ..कि लोगो की भीड़ की लहर बड़ी व तेज रफ़्तार से भाग रही है या समुन्दर की लहरे तेजी से आपको खुद में समेट रहीं है |..
मैं अभी हाल में ही मैं दूसरी बार मुंबई गयी .पहली बार ठीक शादी के बाद जाना हुआ था .तब उम्र छोटी थी और वो आँखों में खिली धूप से सपने देखने की उम्र थी जम्मू शहर से शादी दिल्ली में हुई थी और उस वक़्त मनोरंजन का जरिया बहुधा फिल्म देखना होता था ..कोई भी कैसी भी बस फिल्म लगी नहीं और टिकट ले कर सिनेमा हाल में ..लाजमी था जब इतनी फिल्मे देखी जाती थी तो उस वक़्त नायक नायिका ही जिंदगी के मॉडल थे ..खुद को भी किसी फिल्म की नखरीली हिरोइन से कम नहीं समझा करते थे ..और नयी नयी शादी फिर उसी वक़्त मुंबई जाना एक सपने के सच होने जैसा था ..पर वहां पहुँचते ही ऐसे वाक्यात और ऐसी भागमभाग देखी कि तोबा की वापस कभी इस नगरी में न आयेंगे ..जम्मू स्लो सीधा सा शहर दिल्ली में रहने की आदत मुंबई के तेज रफ़्तार से वाकई घबरा गयी ..लोकल पर भाग कर चढना और बेस्ट बस के भीड़ के वह नज़ारे कभी भूल नहीं पायी ..तीस साल के अरसे में ..याद रहा तो सिर्फ एलिफेंटा केव्स और जुहू चौपाटी पर घूमना ( तब वह कुछ साफ़ सा था ) खैर वह किस्से तो फिर कभी ..चर्च गेट के किसी रेस्ट हाउस में ठहरे थे ..अधिक दिन नहीं थे सिर्फ पांच दिन .जिस में एक दिन ससुर जी के किसी दोस्त के यहाँ लंच था ..लोकल ट्रेन पकड कर टाइम पर आने का हुक्म था और वहां अधिक जान पहचान न होने के कारण मुश्किल से सिर्फ खाना खाने जितना समय बिताया और यह मन में बस गया की मुंबई के लोग बहुत रूखे किस्म के होते हैं ..वरना नयी नवेली दुल्हन घर आये खाने पर और उसके कपड़ों की गहनों की ( जो सासू माँ ने सिर्फ वही पहन कर जाने की ताकीद की थी बाकी घूमते वक़्त पहनना मना था ) क्या फायदा कोई बात ही न करें और तो और घर के लोगों के बारे में भी अधिक न पूछे …दिल्ली वाले तो खोद खोद के एक पीढ़ी पीछे तक की बात पूछ डालते हैं .:) सो अधिक सोच विचार में समय नष्ट नहीं किया और यही सोच के दिल को तस्सली दी खुद ही “कौन से रिश्ते दार थे जो अधिक पूछते