गंगानगर का नाम जब पहली बार सुना तो लगा जैसे यह भी गंगा के किनारे बसा कोई पुराना सा शहर होगा. पर न तो यह गंगा के किनारे है और न ही बहुत पुराना. इस शहर को अपना नाम मिला गंग नहर से और गंग नहर को अपना नाम मिला आज़ादी से पहले की बीकानेर रियासत के आखिरी महाराजा गंगा सिंह से.
ज़िले का गजेटियर बताता है कि 1927 में महाराजा गंगासिंह के अथक परिश्रम से सतलज का पानी गंगनहर के ज़रिए प्यास और भूख से परेशान गंगानगर और बाकी बीकानेर में पहुंचा. और इन इलाकों की किस्मत पलट गई. जबकि तथ्यों की पड़ताल करने वालों की कहानी इससे थोड़ी सी अलग है.
दैनिक भास्कर के वरिष्ठ पत्रकार त्रिभुवन गंगानगर में ही पैदा हुए और उन्होंने इस शहर को आकार लेते देखा. पिछले कुछ सालों में उन्होंने शहर के इतिहास पर शोध किया, बीकानेर के अभिलेखागार से लेकर दिल्ली में तीन मूर्ति भवन के नेहरू मेमोरियल संग्रहालय तक की बहुत ख़ाक छानी. उन्हें बहुत कुछ ऐसा मिला जो सरकारी गजेटियर में नहीं है. वे बताते हैं कि साल 1876 से 1878 के बीच जब ग्रेट फेमीन आया तो पूरे देश में करीब 55 लाख लोग भूख से मर गए, अकेले राजपूताने में ही मरने वालों की संख्या 20 लाख से ऊपर थी. भूख से हारे हुए लोग पंजाब और नॉर्थवेस्ट प्रोविंस में जाकर लूटपाट और तमाम दूसरे अपराध करने लगे. और जब इन अपराधों की आवाज़ अंग्रेजी संसद तक पहुंची तब एक सर्वे कराकर पता लगाया गया कि इन अपराधों के पीछे का कारण क्या था. फिर तय हुआ कि सतलज का पानी राजपूताने तक पहुंचाया जाये ताकि लोग खेती के काम में लग सकें.
काम काफी मुश्किल था और बीकानेर के तत्कालीन महाराजा डूंगरसिंह इसके लिए तैयार नहीं थे. पर उन दिनों बीकानेर एक स्वतंत्र रियासत नहीं थी बल्कि अंग्रेजों की रीजेंसी काउंसिल उसे गवर्न करती थी. तो उन दिनों जब महाराजाओं ने अकाल को जनता का भाग्य बताकर अपनी ज़िम्मेदारी से मुंह मोड़ लिया तब ब्रिटिश सरकार ने अपने फायदे के लिए सही, बीकानेर कनाल की पूरी परियोजना तैयार कराई. साथ ही प्रिंस गंगा सिंह को पढ़ने के लिए मेयो कॉलेज भेजा गया. मेयो से लौटे गंगासिंह ने पूरी तरह अंग्रेजों के फैसले को लागू कराया और 1923 से 1925 के बीच बीकानेर कनाल बन कर तैयार हुई. 1927 में इस नहर में पानी आया और इसके बाद गंगानगर शहर की असली बसावट शुरू हुई.
गंगानगर के बारे में एक बेहद दिलचस्प बात यह है कि 1927 से पहले यह शहर बीकानेर की मिर्ज़ेवाला तहसील का एक छोटा सा गांव रामू की ढाणी या रामनगर था. आज मिर्ज़ेवाला खुद गंगानगर तहसील का एक गांव है. और रामनगर इलाका इन दिनों गंगानगर की पुरानी आबादी के नाम से जाना जाता है.
गंगानगर के बसने की कहानी भी बीकानेर नहर की खुदाई की कहानी के साथ ही जुड़ी है. कहानी यह है कि बीकानेर नहर जिसे अब गंगनहर कहा जाता है, को बनाने का पैसा ज़मीनें बेच कर निकाला जाना था. उन दिनों ये सारी ज़मीनें सरकार या रियासत के पास थीं और रेत के टीलों की शक्ल में बंजर पड़ी थीं. जब बीकानेर के अमीर घरानों को ये ज़मीनें खरीदने के लिए कहा गया तो उन्होंने इन रेत के टीलों को खरीदने से इनकार कर दिया. तब अंग्रेज शासकों ने पंजाब के किसानों को यह प्रस्ताव दिया. जब कई सिख और जाट किसानों ने हिम्मत दिखाते हुए ये ज़मीनें खरीदीं तब जाकर गंगनहर बन पाई.
पंजाब के ये किसान अपने साथ मेहनत की संस्कृति भी लेकर आए जो आज गंगानगर की पहचान हैं. इसके अलावा जब 1947 में भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ तब पाकिस्तान से भी हज़ारों हिंदू परिवार यहां आकर बस गए. पूरी तरह उजड़कर यहां आने वाले इन नागरिकों ने इस ज़िले को एक अलग ही तहज़ीब दी. ऐसी तहज़ीब जिसमें जाति और धर्म के नाम पर लड़ने-मरने का उन्माद नहीं है. बल्कि मेहनत के दम पर सबकुछ हासिल कर लेने का जज़्बा है.
मौजूदा गंगानगर की भौगोलिक सीमाएं देखें तो यह राजस्थान का सबसे उत्तरी ज़िला है. इसकी सीमा पूर्व में राजस्थान के हनुमानगढ़ ज़िले, दक्षिण में बीकानेर, पश्चिम में पाकिस्तानी पंजाब के बहावलपुर ज़िले और उत्तर में भारतीय पंजाब के अबोहर से लगती है. यानी इस शहर का भूगोल अपने आप में ही इसे खास बना देता है.